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आलेख

*शीर्षक दिशा हारा केमोन बोका मोंटा रे*

लेखिका-निवेदिता मुकुल सक्सेना झाबुआ मध्यप्रदेश

जीवन के साथ उम्र के पड़ाव सतत चलते रहते है जैसे जैसे व्यवहारिक दुनियाँ देखते जाते है कई व्यवहार रंग रूप ऐश्वर्य भोतिक संसाधन की मोहमाया का सुख लुभाने लगता हैं ऒर मन कहता हैं यही तो सब कुछ है , जो हमे सफल जीवन जीने के लिए चाहिए ।
हाल ही में काफी समय पहले रिलीज फ़िल्म का एक गाना फिर गुंजा जो यथार्थ जीवन की दार्शनिक दुनिया मे ले गया।
*कागज के दो पंख लेकर उड़ा चला जाये रे*
*जहा नही जाना था ये वही चला हाय रे*
*उमर का ये ताना बाना समझ ना पाए रे*
*जुबा पे ये मोह माया नमक लगाए रे*
*के देखे ना भाले ना जाने ना दायरे*
*दिशा हारा केमॉन बोका मोंटा रे*
(दिशा हारा अथार्त *भटका हुआ*, केमोन अथार्त *किधर चला*, मोंटा रे अथार्त *मन रे*)
आखिर उम्र के विभिन्न पड़ावों पर चंचल चित्त कई जगह घूमता रहता हैं । आखिर ये तन व मन की पूर्ति को पूर्ण करने फिर चाहे शैशवावस्था में भूख दूर करने व मल मूत्र त्यागने से स्वच्छता की मांग की ओर रोने को लेकर । हालांकि शैशवावस्था पूर्णतः माँ पिता पर निर्भर हैं ।अब बात करे बाल्यवस्था लुभावने खिलोनो की औऱ आकर्षित होती हैं बालक हर चीज को छूना पकडना उसे गिराना तोड़ना आवाज सुनना ओर इन सबमे खुश होना वही इस उम्र की खासियत भी हैं यहां से जीवन के हर सार्थक दृष्टिकोण के साथ बाल्यवस्था सिखाने का एक उत्तम दौर होता हैं। यही से खड़े होना व शरीर का रीढ़ की हड्डि के सहारे सहजता से खड़े हो जाता हैं।
औऱ यही वो समय भी हैं जब बच्चो को आचार व्यवहार संस्कारो की सीढ़ी के कदम चढ़ाए जा सकते है। चाहे धर्म व कर्म के प्रति ध्यान केंद्रित करना हो या अनुशासन में रहना ।
तेरह वर्ष से शुरू होता किशोरावस्था का क्रांतिकारी दौर जो उन्नीस वर्ष की आयु तक कई शारीरिक व मानसिक बदलाव से गुजरता हैं ।उम्र का ये दौर ही एक उड़ती पतंग के समान होता हैं जिसकी डौर उनके निकटस्थ लोगो से जुड़ी होती हैं। एक ऊंचे भविष्य को सँवारती स्वप्नों की श्रृंखला पहले शुरू हो जाती हैं अगर सही मार्गदर्शन मिल जाए तो साकार हो जाये नही तो मृगमरीचिका समान उम्र का ये दौर भटक जाता हैं । वर्तमान समय में स्थितियां विकट हो चली विगत दो वर्ष सभी वर्गों में असमंजस रहा हैं तो निश्चित उम्र का ये पड़ाव भी कई दुविधाओं से ग्रस्त रहते हुए चुनौती पूर्ण रहा । ये अधिकतर किशोरवयो में देखने मे आया हैं कि उच्चतर शिक्षा में अभी भी विषयो को लेकर चुनाव करने में सक्षम नही है कारण भविष्य को देखते हुए व अपनी कार्यक्षमता के अनुकूल मेहनत करने में भी असक्षम रहते है। जहाँ अधिकतर माता पिता आंखे मूंदकर भी लाखों रुपये खर्च करते हुए कोचिंग क्लासेस पर विद्यार्थियों की बुद्धि संचालन में स्वाहा कर देते व अन्ततः डोनेशन कॉलेज में लाखो रुपये खर्च कर एडमिशन दिलवा देते है। बाकी विद्यार्थी जो इस प्रक्रिया में भाग नही लेते पाते लौटकर स्नातक की ओर बढ़ते हैं और फिर शुरू होता हैं एक लंबी पंक्ति में बेरोजगारी का रोना। कारण स्पष्ट है जहाँ लक्ष्य ही उद्देश्यपरक नही वहाँ बेरोजगारी का आंदोलन चलेगा ही।ये किशोरवय युवा में आ ही जायेगा ओर तब तक भटकने का दौर चलता रहेगा।
वर्तमान में ट्रेंड व स्टेटस किशोर व युवा दोनों को ही भ्रमित सुख की प्राप्ति हेतु अपना कीमती समय व्यय कर रहा है।वही उम्र के बढ़ते माता पिता भी असक्षम युवाओं का विवाह करवा रहे परिणामस्वरूप परिवार के पालन पोषण हेतु बेमन से कमाने निकले युवा अस्थाई नोकरी में जैसे तैसे घर चला रहे । जहा से कभी भी निकाले जाने का डर व परिवार की चिंता का द्वंद चलता रहता हैं। इन सबमे भूमिका आती हैं वर्तमान नारी की जो सँयुक्त परिवार के महत्व को नजरअंदाज कर हर तरह से न्यूक्लियर फैमिली में स्वतंत्र व स्वच्छन्द जीवन जीना पसन्द कर रही । इन्ही के अनुसरण से इन न्यूक्लियर फैमिली में पलते बच्चे अपने दादा दादी ,नाना नानी की भावुक संवेदना व परिवार के संस्कारों से वंचित रह जाते है ।
कोरी कल्पनाओं में गोते खाते युवक युवतियां विवाह उपरांत कुछ समयांतराल में ही न्यायालय की शरण मे तलाक के लिए आ रहे न्यायालय में इन प्रकरणों की संख्या भी गत वर्षों में बढ़ी हैं। म्यूच्यूअल डिवॉर्स में महिला को अगर वह सक्षम है या उसकी राजी से उसे एलुमिनि नही देना पढ़ती लेकिन वर्त्तमान में पश्चिमी सभ्यता का जाल जिस तरह फैल रहा वहां डिवॉर्स या मल्टीपल डिवॉर्स भारत मे आम बात होती जा रही हैं जो भारी एलुमनी की मांग का व्यापार का केंद्र बनता जा रहा है।
अब शहरों में भी बड़े बड़े बंगले खाली होते जा रहे परिवारों में सामंजस्य की संभावना कम होती जा रही इन बंगलो में अब सैकड़ों बुजुर्ग लोग नोकरो के सहारे जीवन व्यापन करते दिखाई देते है।आंगनों की खुशहाली क्षीण होती जा रही ।

*जिम्मेदारी हमारी*
*तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता*।।
अर्थात श्रीकृष्ण अनुसार मनुष्यों को चाहिए कि वह संपूर्ण इंद्रियों को वश में करके समाहितचित्त हुआ मेरे परायण स्थित होवे, क्योंकि जिस पुरुष की इंद्रियां वश में होती हैं, उसकी ही बुद्धि स्थिर होती है।
तातपर्य ये भाव बचपन से ही बालको में पहुचेंगे तभी उम्र के ताने बाने को सहजता से सुलझा पाएंगे ।सिर्फ मस्तिष्क के सन्तुलन से कर्मो को आत्मसात कर लक्ष्यों को साधा जा सकता हैं।इस हेतु वातावरण परिवार से ही तैयार होगा। ये परिवार में जिम्मेदारों को सोचना ओर फलीभूत करना है तभी भारतीय संस्कृति और सभ्यता जीवित रह पाएगी।


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