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लॉकडाउन से क्या लाभ मिला-  डॉ सिखा आनंद

ब्यूरो चीफ अमित कुमार राय(सिवान)

दुनिया आज जिसको लेकर काफी मुश्किलों से गुजर रही है जो करोना रूपी कहर बनकर पूरे संसार को आज प्रभावित कर रहा है क्या उसके पीछे का रीजन कहीं प्रकृति के साथ छेड़छाड़ तो नहीं है।लगातार पर्यावरण में हो रही क्षति के बाद कोरोना पर्यावरण के लिए वरदान और मानव के लिए अभिशाप बन कर आया है। प्रकृति ने हम इंसानों को जीवन-यापन के लिए एक से बढ़कर एक संसाधन दिए, मगर अपने लालच एवं स्वार्थ के चलते इंसान सबकुछ से निर्वासित हो गया और हालात ऐसे बन गए है कि उसे अपने-अपने घरों में बंद होकर जीना पड़ रहा है । कोरोना धीरे-धीरे भयानक रूप लेता जा रहा है और इसके चलते मानवीय क्रियाएं ठप्प पड़ चुकी है और इसका प्रत्यक्ष लाभ प्रकृति को मिल रहा है । वातावरण स्वच्छ और निर्मल हो गया है, पानी, नदियाँ, हवा, जंगल, भूमि एवं पूरा पर्यावरण खिलखिला रहा है । हवा शुद्ध होने से आसमान भी साफ हो गया है । पक्षियों का कलरव दुबारा गूंजने लगा है। आजकल आकाश भी नीला दिखने लगा है, क्योंकि प्रदूषण की वजह से ओज़ोन परत का संतुलन बिगड़ गया था, उसमें अब सुधार हो रहा है।
पिछले चार महीनों में हमारी दुनिया एकदम बदल गई है । हज़ारों लोगों की जान चली गई, लाखों लोग बीमार पड़े हुए हैं। इन सब पर एक नए कोरोना वायरस का क़हर टूटा है और जो लोग इस वायरस के प्रकोप से बचे हुए हैं, उनका रहन सहन भी एकदम बदल गया है। ये वायरस दिसंबर 2019 में चीन के वुहान शहर में पहली बार सामने आया था ।उसके बाद से दुनिया में सब कुछ उलट पुलट हो गया। इसमें शक नहीं कि नया कोरोना वायरस दुनिया के लिए काल बनकर आया है। इस नन्हे से वायरस ने हज़ारों लोगों को अपना निवाला बना लिया है । अमरीका जैसी सुपरपावर की हालत ख़राब कर दी है। इन चुनौतियों के बीच एक बात सौ फ़ीसद सच है कि दुनिया का ये लॉकडाउन प्रकृति के लिए बहुत मुफ़ीद साबित हुआ है। वातावरण धुल कर साफ़ हो चुका है ।हालांकि ये तमाम क़वायद कोरोना वायरस के संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए हैं।
साल 2015 में पेरिस संधि (पेरिस क्लाइमेट डील) हुई जिसके बाद सभी देशों ने कार्बन इमीशन घटाने के राष्ट्रीय लक्ष्य तय किये । इस साल नवंबर में यूनाइटेड किंगडम के ग्लासगो में होने वाली जलवायु परिवर्तन वार्ता (जिसे COP-26 कहा जाता है) में तमाम देशों को अपनी योजनाओं के विस्तृत ख़ाके जमा करने थे। इन्हीं योजनाओं के आधार पर पता चलता कि अगले 30 साल में अलग-अलग देश ग्लोबल वॉर्मिंग कम करने और क्लाइमेट चेंज के प्रभावों से अपनी जनता को बचाने के लिये क्या कदम उठायेंगे। जलवायु परिवर्तन वार्ता में हर साल 190 से अधिक देश हिस्सा लेते हैं । इस साल का महासम्मेलन COP-26 फिलहाल स्थगित कर दिया गया है और इसकी तारीखों का ऐलान कोरोना संकट के गुज़र जाने के बाद होगा। इस वार्ता से पहले होने वाली सारी वार्तायें भी अभी रद्द कर दी गई हैं। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुट्रिस ने पहले ही कह दिया है कि जलवायु परिवर्तन से लड़ाई अहम है लेकिन फिलहाल सभी देशों को अपने सारे संसाधन इस वायरस से निबटने में लगाने होंगे।
लॉक-डॉउन के सहारे प्रकृति ने सारी दुनिया को एक सकारात्मक संदेश देने की कोशिश की है। अगर इस संदेश को समझे तो पाएंगे कि दुनिया के अधिकांश शहरों में सांस तोड़ती हवा साफ हुई है। हर समय धुएं से काला रहने वाला दिल्ली जैसे महानगरों का आसमान नीला दिखाई देने लगा है और रात को तारे चमकने लगे हैं। लॉकडाउन की वजह से तमाम फ़ैक्ट्रियां बंद हैं ।यातायात के तमाम साधन बंद हैं , अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अर्थव्यवस्था को भारी धक्का लग रहा है ,लाखों लोग बेरोज़गार हुए हैं, शेयर बाज़ार ओंधे मुंह आ गिरा है, लेकिन अच्छी बात ये है कि कार्बन उत्सर्जन रुक गया है। प्रकृति के लिए यह बहुत अच्छा संकेत है। लॉक-डॉउन के चलते देश के महानगरों में वायु, जल और ध्वनि प्रदूषण में भारी गिरावट आई है। बेशक यह क्षण कुछ ही दिनों के लिए है, लेकिन प्रकृति के संरक्षण के लिए एक अच्छी पहल साबित हो रही हैं। दरअसल, कोरोना जैसे वायरस का आक्रमण भी प्रकृति का संतुलन बिगड़ने से हुआ है। आधुनिकता की अंधी दौड़ में आज पूरी दुनिया ने प्रकृति का बेशुमार दोहन किया है। जिस तरह से चीन में जंगली जानवरों को इंसान ने अपना ग्रास बनाना शुरू कर दिया है। जिसका परिणाम सारा विश्व भोग रहा है और न जाने इसका परिणाम अभी आगे क्या क्या दिखाएगा ।
ग्लोबल वॉर्मिंग के असर के चारों ओर ही जलवायु नीति की बहस तय होती है और इसके ख़तरों पर विशेषज्ञ हमें लंबे समय से चेतावनी देते रहे हैं । पिछले तीन सालों को ही आधार बनायें तो संयुक्त राष्ट्र के क्लाइमेट पैनल (आईपीसीसी) – जिसमें दुनिया भर के जाने माने जलवायु परिवर्तन विशेषज्ञ और वैज्ञानिक हैं – ने कम से कम तीन बड़ी रिपोर्ट दी हैं जो मानवता पर जलवायु परिवर्तन के असर को बताती हैं । 6 अक्टूबर 2018 को 1.5 डिग्री तापमान वृद्धि पर जारी की गई। एक विशेष रिपोर्ट रिपोर्ट SR 1.5 में साफ कहा गया अगर विश्व को बर्बादी से बचाना है तो हमारे पास सिर्फ दस साल का ही वक़्त बचा है और 2030 तक धरती से हो रही कुल कार्बन उत्सर्जन में साल 2010 के स्तर पर 45% कटौती करनी होगी । वैज्ञानिकों का कहना है कि मौसम में तीव्र उतार चढ़ाव से फ्लू घनी आबादी वाले इलाकों तक पहुंच रहा है और 2050 तक बड़े शहरों में इन्फ्लुएंजा के मामले 20%-30% बढ़ेंगे।
विश्वव्यापी लॉकडाउन के कारण कार्बन उत्सर्जन रुक गया है ।अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर की ही बात करें तो पिछले साल की तुलना में इस साल वहां प्रदूषण 50 प्रतिशत कम हो गया है। इसी तरह चीन में भी कार्बन उत्सर्जन में 25 प्रतिशत की कमी आई है ।चीन के 6 बड़े पावर हाउस में 2019 के अंतिम महीनों से ही कोयले के उपयोग में 40 प्रतिशत की कमी आई है । पिछले साल इन्हीं दिनों की तुलना में चीन के 337 शहरों की हवा की गुणवत्ता में 11.4 फ़ीसद का सुधार हुआ । दुनिया भर में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से पहली बार कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में 5 प्रतिशत से अधिक की कमी दर्ज की जा सकती है। टाइम्स ऑफ इंडिया में कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में अर्थ सिस्टम साइंस के प्रोफेसर जैक्सन के हवाले से कहा गया है कि कोरोना संकट के बीच यह एक सुखद खबर है । ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट के चेयरपर्सन रॉब जैक्सन के अनुसार वर्ष 2008 में आर्थिक मंदी के समय कार्बन उत्सर्जन में 1.4 प्रतिशत की कमी आई थी. विशेषज्ञों के अनुसार एक फरवरी से 19 मार्च 2020 के बीच पिछले वर्ष की समान अवधि की तुलना में उद्योगों से कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) उत्सर्जन में 10 मिलियन टन यानी एक करोड़ टन की कमी दर्ज की गई है।
पर्यावरण को बचाने के लिए लोगों को अपनी आदतें बदलनी होंगी. अगर वो ख़ुद नहीं बदलते हैं, तो उन्हें जबरन बदलवाना पड़ेगा जैसा जापान के क्योटो शहर में हुआ था। साल 2001 में यहां मोटर वाले रास्ते बंद कर दिए गए और लोगों को सार्वजनिक परिवहन इस्तेमाल करने को मजबूर किया गया। धीरे-धीरे ये लोगों की आदत में शामिल हो गया ।जब दोबारा रास्ते खुले तो भी ज़्यादातर लोग सार्वजनिक परिवहन का ही इस्तेमाल कर रहे थे। लेकिन इसके लिए सरकारों को सार्वजनिक परिवहन की स्थिति बेहतर करनी होगी। दुनियाभर के पर्यावरणविद और प्रकृति प्रेमियों का कहना है कि जिस तरह से लॉक-डॉउन के बाद सारी दुनिया में सकारात्मक प्रभाव देखे गए। उससे यह अनुभव सामने आया कि ठोस नीति बनाकर स्वेच्छा से अलग-अलग शहरों में साल में एक बार लॉक-डॉउन करके प्रकृति के संतुलन को साधा जा सकता है। लेकिन क्या इसके लिए लोग तैयार होंगे? यह थोड़ा अटपटा लगता है वो भी तब जब लोग पर्यावरण से ज्यादा अर्थव्यवस्था की सोचते हो।
कोरोना के प्रभाव से कम होता प्रदूषण और कार्बन इमीशन भले ही धरती को तात्कालिक रूप से साफ करता दिखे लेकिन जलवायु परिवर्तन के खिलाफ़ लंबी लड़ाई के लिये फ़ायदेमंद नहीं है । न केवल इन हालातों से सभी देशों को आर्थिक झटका लगा है बल्कि महामारी के काबू में आते ही इमीशन फिर से आसमान छूने लगेंगे। इसके अलावा अर्थव्यवस्था को लगे झटके के बाद अमीर-विकसित देश पैसे की कमी बताकर अपना पल्ला झाड़ लेंगे और पेरिस संधि में जिस क्लाइमेट फाइनेंस का वादा है वह पूरा नहीं होगा । यहां यह उल्लेखनीय है कि 2010 में कोपेनहेगन सम्मेलन के दौरान 2020 तक 100 बिलियन डॉलर का एक ग्रीन क्लाइमेट फंड बनाने की बात हुई थी जिसमें आजतक 10% से भी कम जमा हुआ है।
भारत के लिए पर्यावरण में सकारात्मक परिवर्तन का समाचार अत्यंत सुखद है, क्योंकि वर्ष 2019 के एअर क्वालिटी इंडेक्स में भारत विश्व का पांचवां सर्वाधिक प्रदूषित देश बन चुका था। इस प्रदूषण का प्रमुख कारण था एयरो सोल , इसका उत्सर्जन मुख्यतः दो स्रोतों से होता है – प्राकृतिक माध्यम जैसे ज्वालामुखी, समुद्र के लवण इत्यादि ,जबकि मानवीय कारकों में, कार्बनिक जैविक पदार्थो का दहन शामिल है। इसी कारण विश्व के सर्वाधिक प्रदूषित 30 शहरों की सूची में 21 शहर भारत के थे। अमेंरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के सेटेलाईट टेरा द्वारा लिए गए चित्रो के अनुसार, भारत की एअरो सोल आप्टिकल डेप्थ कम हुई है, जिसके कारण आकाश स्वच्छ हुआ है तथा वायु में घुलित अशुद्धियां जैसे पार्टिकुलेट मैटर 2.5 तथा 10 अपने बीस वर्षो के निम्नतम स्तर पर है ।यूरोपियन अंतरिक्ष एजेंसी के कापरनिकस सेटेलाईट के अनुसार, भारत में नाईट्रस आक्साइड के स्तर में उल्लेखनीय कमी मार्च के अंतिम सप्ताह में देखी गई कोरोना वायरस भारत और दुनिया के लिये सबसे बड़ा संकट है लेकिन अगर आईपीसीसी की रिपोर्ट्स और अन्य शोध देखें तो जलवायु परिवर्तन लंबे समय से मानवता को कुतर रहा है और उसकी चोट पिछले दो दशकों में बढ़ी है । भारत जैसे देशों की जीडीपी पर उसका नकारात्मक असर अब रिसर्च साबित कर रही हैं. भारत ही नहीं विश्व के तमाम गरीब और विकासशील देशों की जलवायु नीति इससे प्रभावित होगी।


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