आलेख-
शीर्षक- कृष्ण भक्त संत कवि मीराबाई
लेखिका- सुनीता कुमारी
बिहार
उत्तर भारत में मध्य काल के भक्ति आंदोलन में भक्ति रस की अकूत धारा प्रवाहित करने में मीराबाई का भी नाम सम्मान पूर्वक लिया जाता है. मीराबाई कृष्ण भक्त कवित्री थी और उन्होंने अपना जीवन कृष्ण की अनन्य भक्ति में समर्पित कर दिया.भक्ति रस में डूबी इनकी रचना उनके कृष्ण के प्रति अगाध प्रेम को प्रदर्शित करती हैं.मीराबाई खुद कृष्ण की पत्नी मानती थी.
प्रसिद्ध कृष्ण भक्त महिला संत कवि मीराबाई का जन्म 1498 ईस्वी में हुआ था.मीराबाई राजस्थान स्थित मेड़ता के शासक रतन सिंह राठौर की पुत्री थी .मीराबाई का जन्म मेड़ता के एक गांव कुस्ली में हुआ था .
मीराबाई को बचपन से ही कृष्ण से प्रतीकात्मक प्रेम था .मीराबाई के कृष्ण भक्त बनने के पीछे एक कथा प्रचलित है, जिसके अनुसार मीरा जब छोटी थी उनके पड़ोस में किसी व्यक्ति के यहां बारात आई थी। सभी स्त्रियां छत पर खड़ी होकर बारात देख रही थीं।तभी मीराबाई भी बारात देखने के लिए छत पर आई .बारात को देख मीरा ने अपनी माता से पूछा कि मेरा दूल्हा कौन है इस पर मीराबाई की माता ने उपहास में ही भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति की तरफ इशारा करते हुए कह दिया कि यही तुम्हारे वर हैं, यह बात मीराबाई के बालमन में एक गांठ की तरह समा गई और वे कृष्ण को ही अपना पति मानने लगी।
मीराबाई जोधपुर, राजस्थान के मेड़ता राजकुल की राजकुमारी थी। ये अपने पिता रतन सिंह की एकमात्र संतान थी। मीराबाई जब छोटी थीं तो उनकी मां का देहांत हो गया, इसके बाद उनके दादा राव दूदा उन्हें मेड़ता ले आए और यहीं पर उनकी देख-रेख में मीराबाई का पालन-पोषण हुआ। मीराबाई ने कृष्ण को ही अपने पति के रुप में स्वीकार लिया था इसलिए वे विवाह नहीं करना चाहती थी.
1516 इस्वी में मीराबाई का विवाह राणा सांगा के जेष्ठ पुत्र भोजराज से हुआ .उनके पति भोजराज की असमय मृत्यु हो गई और मीराबाई विधवा हो गई .जिसके बाद मीराबाई कृष्ण भक्ति में लीन रहने लगी.1531 ईस्वी में राणा सांगा का छोटा बेटा विक्रमादित्य गद्दी पर बैठा उसने मीरा को विष देकर मारने का प्रयास किया.
मीराबाई के विवाह के कुछ समय बाद ही उनके पति का देहांत हो गया जिसके बाद 1531 ईस्वी में राणा सांगा का छोटा बेटा विक्रमादित्य गद्दी पर बैठा उसने मीरा को विष देकर मारने का प्रयास किया.
मीराबाई को उनके पति के साथ सती करना चाहा लेकिन वे इसके लिए नहीं हुई, क्योंकि कृष्ण को अपना पति मानती थी.
” जाको राखे साइयां मार सके ना कोई “की कहावत सत्य हो गई और मीरा वहाँ से बच निकली.इसके बाद वे मेड़ता छोड़कर चित्तौड़ आग आ गई .जहां वह उनके चाचा ब्रह्मदेव के रहते थे.जोधपुर राजा मालदेव ने जब मेड़ता पर अधिकार किया तब मीरा मेड़ता छोड़कर द्वारका चली गई . इसके बाद वे साधु-संतो के साथ रहने लगी व कृष्ण की भक्ति में लीन हो गई। मीराबाई की मृत्यु के विषय में कहा जाता है कि उन्होंने जीवन भर भगवान कृष्ण की भक्ति की और अंत समय में भी वे भक्ति करते हुए कृष्ण की मूर्ति में समा गई थी।
उन्होंने कृष्ण भक्ति के कई पदों का सृजन किया है उनका भजन –
“मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई”
अब भी उतना ही प्रसिद्ध है. महादेवी वर्मा जी ने मीराबाई के संबंध में कहा है कि, मीरा का भजन विश्व के भक्ति रस साहित्य में अनमोल रत्न है, यद्यपि चेतन की तरह मीरा के आसपास अनुयायियों की जमघट नहीं है फिर भी शताब्दियों से भक्ति आंदोलन की एक प्रमुख स्तंभ के रूप में उनकी मिसाल दी जाती है.
मीराबाई के गुरु का नाम रैदास था रैदास एक चर्मकार थे अतः इससे पता चलता है कि मेरा जाती पाती का भेद नहीं रखती थी मीरा अत्यंत निडर कृष्ण भक्त थी